
संस्मरण : जब ठाकुर जी की कृपा से मिला भोजन / संतों के दर्शन व संतों के लिए बने भोजन का रस
संस्मरण : जब ठाकुर जी की कृपा से मिला भोजन / संतों के दर्शन व संतों के लिए बने भोजन का रस
जब हम छोटे थे तो बड़े बड़े लोगों को ऐश्वर्य भोगते हुए और खुश होते हुए देखते थे | बालसुलभता के कारण हम उस समय हम सोचते थे की यह लोग कितने भाग्यशाली हैं | पर बड़े होने पर जब हमने अपना कार्य प्रारंभ किया तो देखा की ये लोग भी हमारे दर पर मांगने आने लगे | और जो मांग रहा है वो तो दुखी है, उसे तो अभाव है | नेता, अभिनेता, अमीर हो या निर्धन सब मांगते हैं | तो जो भी अपूर्ण है, जो मांग ही रहा है वो दुर्भाग्यशाली है | यह खुशियाँ खोखली हैं |
शास्त्र कहतें हैं की भाग्यशाली पुरुष वह है, जिस व्यक्ति को मार्ग पर चलते समय सवारी मिल जाये | जिस व्यक्ति को कड़ी धुप में घनी छाहों का सहारा मिले और जिसे भूख लगने पर भोजन उसके सामने उपस्थित हो जाये, वह भाग्यशाली पुरुष है | यह भाग्य केवल इश्वर प्रेम से उत्तपन्न होता है | जिसके सर पर गुरु, माता, पिता और ईश्वर का आशीर्वाद हो वो भाग्यशाली है |
यह संस्मरण इसी भाग्य को दर्शाता है |
हमारे ठाकुर श्री गोविन्द जी महाराज बहुत निर्मल ह्रदय वाले हैं | ऐसा कभी नहीं होता की भक्त भाव से पुकारे और वो न सुने | पर पुकार दिल से आनी चाहिए, और फिर देखिये कुछ भी असंभव नहीं है |
एक दिन हम अपनी गाड़ी से श्री गोविन्द देव जी के दर्शन कर लौट रहे थे | पेट में चूहों ने कोहराम मचा रखा था और वाहन की गति भी तेज थी | रास्ते में हमारे परम मित्र का घर पड़ता था | हमारे ये मित्र डायमंड के व्यापारी हैं और उस समय वो मुंबई रहते थे | जब भी जयपुर आते हमारे घर जरूर आते थे | इस बार वो घर पर थे तो हमने सोचा की उनसे मिलते हुए चलें , पर दुविधा थी की भूख बहुत तेज लग रही थी | इसके बावजूद भी हम उनके घर पहुंच गए |
वहां पहुंचे तो नज़ारा ही बदला हुआ था | उनके घर से एक पहुंचे हुए मुनि बाहर की और आ रहे थे | और उन मुनिदेव के बहुत से शिष्य भी वहां उपस्थित थे | पूरा घर सजा हुआ था | उनके प्रस्थान के समय उनकी चरण वंदना की जा रही थी | फूलों की वर्षा हो रही थी | बहुत स्तब्ध कर देने वाला मनोरम दृश्य था | हमने भी पूरे आदर सहित उन्हें प्रणाम किया और हमें आशीर्वाद भी मिला |
हमारे मित्र ने हमें देख लिया था और हमें अन्दर बुला लिया | हमारे मित्र के पितामह भी वहां थे जिनसे हम जीवन में पहली बार मिले थे | हमारे मित्र ने हमारा इंट्रोडक्शन दिया और हमने उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त किया | हम वहीँ बैठ गए और मित्र के दादाजी हमसे हमारे बारे में पूछने लगे | बातों के दौरान हमें भूख फिर सताने लगी | हमने पूरे आदर सहित उनसे जाने की आज्ञा मांगी | हमारा इतना कहना था की वो अपने स्थान से खड़े हो गए | उन्होंने नौकरों को आदेश दिया की मुख्य द्वार बंद कर दें और इस लड़के को (हमें) बाहर नहीं जाने दें | हमें आश्चर्य हुआ की यह क्या हो रहा है|
उन्होंने आदेश दिया की हमारे लिए भोजन की थाल लगायी जाये | यह सुनते ही हम आश्चर्य चकित रह गए | हम सोच रहे थे की उन्हें हमारे मन की बात कैसे मालूम हुई | हमारे मित्र के घर में संतो के प्रवास के दौरान जो अत्यंत शुद्ध भोजन बना था वही भोजन हमें चांदी की थाली में परोसा गया | भोजन सामने था , जिसे पूर्ण शुद्धता के साथ बनाया गया , पर भूख कहीं गुम हो गयी थी | यह एक साधारण सी इच्छा थी जो गोविन्द दर्शन के पश्चात मात्र सोचने मात्र से इस तरह से पूरी हो रही थी |
हम निवाला तो ले रहे थे पर कंठ रूंध सा गया था | हम जैसे अकिंचन और बुद्धीहीन पर ईश्वर की यह अनुकम्पा हमें विचलित सी कर रही थी | हमने कुछ माँगा नहीं था सिर्फ सोचा था |
संतों के लिए बना भोजन, चांदी के थाल में कुछ इस तरह लग रहा था मानों इश्वर हमारी हर इच्छा को सुन रहा हो | जब ईश्वर आपके लिए कुछ करता है तो वेदना होती है की क्या हम सचमुच इस अनुकम्पा के लायक हैं | क्या देतें हैं हम ईश्वर को जिसके बदले में वो हमें इतना कुछ देता है | क्या हम सचमुच इस प्रेम के लायक हैं ?
प्रेम का यह ऋण बहुत भारी होता है जो किसी उपहार से नहीं चुकाया जाता | प्रेम का ऋण तो केवल अक्षुण्ण प्रेम व त्याग से ही चुक सकता है |
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