शनि देव
Video highlights:
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• Special tīrtha of Sani
• Gemstone of Sani
• Vāhan of Sani
• Direction of Sani and its effects
• Special Sani related to strotram in video description
शनि देव के अज्ञात उपाय
शनि देव से सम्बंधित तीर्थ
शनि देव के वाहन
शनि देव के रत्न
शनि देव की दिशा के प्रभाव
शनि देव से सम्बंधित तुरंत प्रभाव दिखने वाला स्त्रोत्र
शनि कहते हैं , जिनको मेरी कृपा प्राप्त करनी है, उन्हें चाहिए कि वे मेरी एक लोहे की मूर्ति बनाएं, जिसकी चार भुजाएं हो और उनमें धनुष, भाला और बाण धारण किए हुए हो।
* इसके पश्चात् शनि देव के दस हजार की संख्या में इस स्तोत्र का जप करें, जप का दशांश हवन करे, जिसकी सामग्री काले तिल, शमी-पत्र, घी, नील कमल, खीर, चीनी मिलाकर बनाई जाए। इसके पश्चात् घी तथा दूध से निर्मित पदार्थों से ब्राह्मणों को भोजन कराएं। उपरोक्त शनि की प्रतिमा को तिल के तेल या तिलों के ढेर में रखकर विधि-विधान-पूर्वक मन्त्र द्वारा पूजन करें, कुंकुम इत्यादि चढ़ाएं, नीली तथा काली तुलसी, शमी-पत्र मुझे प्रसन्न करने के लिए अर्पित करें।
शनि देव को निम्नलिखित वस्तुओं का दान होता है
काले रंग के वस्त्र, बैल, दूध देने वाली गाय- बछड़े सहित दान में दें। जो मन्त्रोद्धारपूर्वक इस स्तोत्र से मेरी पूजा करता है, पूजा करके हाथ जोड़कर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसको मैं किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होने दूंगा। इतना ही नहीं, अन्य ग्रहों की पीड़ा से भी मैं उसकी रक्षा करुंगा। इस तरह अनेकों प्रकार से मैं जगत को पीड़ा से मुक्त करता हूँ।।। * (टीन के डिब्बे या कनस्तर को कैंची से काटकर ऐसी प्रतिमा घर पर ही बनाई जा सकती है। इसके ऊपर काला पेण्ट या तेल में काजल मिलाकर काला रंग कर देना चाहिए)
दशरथ कृत शनैश्चर स्त्रोत्र विनियोगः- ॐ अस्य श्रीशनि-स्तोत्र-मन्त्रस्य कश्यप ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, सौरिर्देवता, शं बीजम्, निः शक्तिः, कृष्णवर्णेति कीलकम्, धर्मार्थ-काम-मोक्षात्मक-चतुर्विध-पुरुषार्थ-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। कर-न्यासः- शनैश्चराय अंगुष्ठाभ्यां नमः। मन्दगतये तर्जनीभ्यां नमः। अधोक्षजाय मध्यमाभ्यां नमः। कृष्णांगाय अनामिकाभ्यां नमः। शुष्कोदराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। छायात्मजाय करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः। हृदयादि-न्यासः- शनैश्चराय हृदयाय नमः। मन्दगतये शिरसे स्वाहा। अधोक्षजाय शिखायै वषट्। कृष्णांगाय कवचाय हुम्। शुष्कोदराय नेत्र-त्रयाय वौषट्। छायात्मजाय अस्त्राय फट्। दिग्बन्धनः- “ॐ भूर्भुवः स्वः” पढ़ते हुए चारों दिशाओं में चुटकी बजाएं। ध्यानः- नीलद्युतिं शूलधरं किरीटिनं गृध्रस्थितं त्रासकरं धनुर्धरम्। चतुर्भुजं सूर्यसुतं प्रशान्तं वन्दे सदाभीष्टकरं वरेण्यम्।। रघुवंशेषु विख्यातो राजा दशरथः पुरा। चक्रवर्ती स विज्ञेयः सप्तदीपाधिपोऽभवत्।।१ कृत्तिकान्ते शनिंज्ञात्वा दैवज्ञैर्ज्ञापितो हि सः। रोहिणीं भेदयित्वातु शनिर्यास्यति साम्प्रतं।।२ शकटं भेद्यमित्युक्तं सुराऽसुरभयंकरम्। द्वासधाब्दं तु भविष्यति सुदारुणम्।।३ एतच्छ्रुत्वा तु तद्वाक्यं मन्त्रिभिः सह पार्थिवः। व्याकुलं च जगद्दृष्टवा पौर-जानपदादिकम्।।४ ब्रुवन्ति सर्वलोकाश्च भयमेतत्समागतम्। देशाश्च नगर ग्रामा भयभीतः समागताः।।५ पप्रच्छ प्रयतोराजा वसिष्ठ प्रमुखान् द्विजान्। समाधानं किमत्राऽस्ति ब्रूहि मे द्विजसत्तमः।।६ प्राजापत्ये तु नक्षत्रे तस्मिन् भिन्नेकुतः प्रजाः। अयं योगोह्यसाध्यश्च ब्रह्म-शक्रादिभिः सुरैः।।७ तदा सञ्चिन्त्य मनसा साहसं परमं ययौ। समाधाय धनुर्दिव्यं दिव्यायुधसमन्वितम्।।८ रथमारुह्य वेगेन गतो नक्षत्रमण्डलम्। त्रिलक्षयोजनं स्थानं चन्द्रस्योपरिसंस्थिताम्।।९ रोहिणीपृष्ठमासाद्य स्थितो राजा महाबलः। रथेतुकाञ्चने दिव्ये मणिरत्नविभूषिते।।१० हंसवर्नहयैर्युक्ते महाकेतु समुच्छिते। दीप्यमानो महारत्नैः किरीटमुकुटोज्वलैः।।११ ब्यराजत तदाकाशे द्वितीये इव भास्करः। आकर्णचापमाकृष्य सहस्त्रं नियोजितम्।।१२ कृत्तिकान्तं शनिर्ज्ञात्वा प्रदिशतांच रोहिणीम्। दृष्टवा दशरथं चाग्रेतस्थौतु भृकुटीमुखः।।१३ संहारास्त्रं शनिर्दृष्टवा सुराऽसुरनिषूदनम्। प्रहस्य च भयात् सौरिरिदं वचनमब्रवीत्।।
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